Friday, April 24, 2015

शायद इसी को जीना कहते हैं


हम अक्सर बीते हुए लम्हे दोबारा जीना चाहते हैं
ज़िन्दगी के कुछ हसीन पल दोहराना चाहते हैं

कभी तो आनेवाले कल के फ़िक्र में उलझे रहते हैं
तो कभी अपनों के सपने पूरे करने में झूजते रहते हैं

बचपन में जवानी का इंतज़ार करते हैं
और जवानी में कामयाबी के पीछे दौड़ते हैं

पुरानी तस्वीरों में बचपन को खोजते हैं
मन ही मन अपने आप को कोसते हैं

औरों के संग यादें पिरोते रहते हैं
लेकिन अपने आप से दूर चलते रहते हैं

हर डगर पर मंज़िल बदलते हैं
अरमानों के नये महफ़िल सजते हैं

हम जिसे “आज” को खोने के ग़म में आसुओं को पीना कहते हैं
कथाओं और कविताओं में शायद इसी को “जीना” कहते हैं