Hindi Section

March 29 2017

आशियाना

कुछ ख़्वाब अधूरे से  
कुछ सप्ने बिखरे पाए 
गुज़रे बच्पन कि गलियों से 
जब मेरे साये

कारवाँ मिलते चले
मैं जुड़ता चला गया
मंज़िल तो कहीं और थी 
पहुँच कहीं और गया 

अंदर से आवाज़ आयी
मानो कोई दस्तक़ सी
सुन न पाया मैं, शायद कहीं
पहुँचने की जल्दी थी 

अब एक एह्सास सा है
पर वक़्त का अंदाज़ा नहीं
साहस तो अब भी है
पर हम अब अकेले नहीं

साथ का हो यकीं अगर
हर हालात के लिये हैं तैयार
बनाएं एक ऐसा आशियाना

जिस्मे हो सिर्फ सुकून और प्यार!
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
December 15, 2016



















-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
November 1, 2016

अल्फ़ाज़ों के मज्मे में मैंने अक़्सर
ग़लत फ़हमियों को पनप्ते देखा है 

शायरी को ग़ज़ल बनने के लिए मैंने अक्सर 
मौसिक़ी का मोहताज़ होते देखा है 

मगर ख़ामोशी और मौसिक़ी अपने आप में मुकम्मल हैं 

इश्क़ मोहब्बत नहीं और लहजा लिहाज़ नहीं 
एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ हैं 

सुकून कि जुस्तजू महज़ एक रिवायत नहीं 
इबादत से वाबस्ता है 

रूहानियत से गुफ़्तगू के हम पुराने ख़्वाबीदा हैं 

जूनून-ए-कोशिश जो शिद्दत बयां करती है 
बयान-ए-इरादे में वो नूर कहाँ 

बादस्तूर ख़ामोशियों कि ताबीर 
किसी इनायत से कम कहाँ 

ग़ौर करें तो दास्ताँ-ए-ज़िन्दगी नज़रों में मयस्सर हैं 
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
September 29, 2016

अलफ़ाज़ शायद लबों से छूटकर आज़ाद महसूस करें
पर सोच तो तेरी अब भी ज़ंग पकडी हुई ज़ंजीरों में जकडी है

ख़्वाहिशों के कारवाँ में तू बहुत आगे निकल गया 
पर गर्दन अब भी तेरी पहली क़ामयाबी पे अकडी है

समय रेत् सी उंगलियों के बीच से रेंगकर निकल गया 
पर तू अब भी पुराने गिले शिक़्वों को धर पकड़ा है

हर पल को अपनाले
अपने हर हुनर को ख़ूब आज़माले 

जीत हुई तो नये अभियान पे चल पड़ 
शिक़स्त हुई तो एक और कोशिश कस के जड़ 

विनम्रता से झुका के सर
ख़यालों को आज़ाद कर

जड़ से मिटा के हर तरह का डर
मुस्कान भरे - एक नयी उड़ान भर
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

September 15, 2016

इरादे नेक हों और तरीक़े नेक हों तो नतीजे भी नेक ही होंगे।

-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
September 14, 2016

मैं कौन हूँ ?

उलझा तो हूँ इस "मैं" के माया में
लेकिन यह "मैं" कौन हूँ?

क्या मेरे रिश्ते मेरी पहचान हैं?
बेटा; भाई; पति; पिता; चाचा या मामा?
या जिससे दुनिया पुकारती हैं वह नाम मेरी पहचान है?

क्या मेरी नौकरी मेरी पहचान है?
या वह सिर्फ रोज़ी रोटी कमाने का एक ज़रिया मात्र है?

यह "मैं" हूँ कौन?
मेरी पहचान आख़िर है क्या?

मेरे शौक़? मेरा लिहाज़? मेरा धर्म या मेरा कर्म?

क्या मेरे एह्सास मेरी पहचान है?
यह शख्स उदास है; नाराज़ है; ख़ुश है;
आलसी है; ख़ुश मिज़ाज़ है या शातिर है।

जब मेरे ज़िंदा रहते इन सवालों का जवाब नहीं है मेरे पास
तो मेरे जाने के बाद - ऐसी कौनसी पहचान के लिये झूंझ रहा हूँ?

इस पल में जो तन्हाई है
क्या उस तन्हाई में ख़ुशी है?

इस पल जो मुझसे रूबरू है
क्या उसके चेहरे पे मुस्कान है?

अरे बीता हुआ कल न लौटेगा
और न आनेवाला कल किसीने देखा
जो भी है बस यही एक पल है

इस पल में "जो हूँ"; "जैसा हूँ"
वही "मैं" हूँ
हाँ - बस वही "मैं" हूँ।

-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

April 24, 2015

शायद इसी को जीना कहते हैं

हम अक्सर बीते हुए लम्हे दोबारा जीना चाहते हैं
ज़िन्दगी के कुछ हसीन पल दोहराना चाहते हैं

कभी तो आनेवाले कल के फ़िक्र में उलझे रहते हैं
तो कभी अपनों के सपने पूरे करने में झूजते रहते हैं

बचपन में जवानी का इंतज़ार करते हैं
और जवानी में कामयाबी के पीछे दौड़ते हैं

पुरानी तस्वीरों में बचपन को खोजते हैं
मन ही मन अपने आप को कोसते हैं

औरों के संग यादें पिरोते रहते हैं
लेकिन अपने आप से दूर चलते रहते हैं

हर डगर पर मंज़िल बदलते हैं
अरमानों के नये महफ़िल सजते हैं

हम जिसे “आज” को खोने के ग़म में आसुओं को पीना कहते हैं
कथाओं और कविताओं में शायद इसी को “जीना” कहते हैं
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

December 18, 2014

Stop This Madness



दिलों में दरार
नफरत कि दीवार
मन में क्लेश; बढ़ता हुआ द्वेश
बटवारे कि उपज – एक से बने दो देश

ईंट का जवाब पत्थर
हालात हुए बद से बत्तर
डर और आतंक से माहौल बेहाल
चैन और सुकून का खौफनाक इंतकाल

मोम के मोर्चे और आपसी चर्चे
घिनौनि जातिय राजनीति के पर्छे
सुरक्षा एवं सेना के बजट में इज़ाफा
बम बन्दूक और मौत के सौदागरों का मुनाफ़ा

हर मुश्किल होता है हल
उपाय है सीधा और सरल
भुला दें अगर बीता हुआ कल
मुस्कुराएंगे हमारी नस्लें और आनेवाला कल


-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

August 14, 2014

स्वतंत्रता - एक एहसास

आज कि मांग है
सोच में बद्लाव कि
औरों से उम्मीद के पहले
अपने आप में इसे जगाने कि

‘पहले आप’ के तहज़ीब वाले इस देश में
अब गूँज रहा है खुदगर्ज़ी का नारा
"हमारी माँगें पूरी करो" कहते सुनते
प्रदेशों में बट रहा है देश यह सारा

अनेकता में एकता का हमेँ कभी था अभिमान
लेकिन अब धर्म और जाति के तनावों में झुकी है हमारी शान
अपने माँ और बहनोँ कि सुरक्षा से मुँह मोड़े, ज़मीर है सोई
भारत माँ कि लाज बचाने वाला क्या सच्चा है कोई?

अपने देश की रक्षा करना केवल जवानोँ कि नहीं
ज़िम्मेदारी तो हम सब कि है
बुनियादी ज़रूरतों कि ख़्वाहिश
जनता कि यह आस तो कब कि है

बढ़ौती और उन्नति में बड़ा फ़र्क है
इस तृष्णा से अपने आप को बचाना है
देश के आबादी को एक ज़रिया बनाना है
उमंग कि लहर को प्रगति के सैलाब में बदलना है

किसि के नक़ल की हमेँ कया ज़रुरत?
आओ अप्नी कल्पनाओं को एक नयी उड़ान दें
ख़ेल, कला और संस्कृति में
उत्कृष्टता कि एक अपनी पहचान दें

मनाने को स्वंतंत्रता एक "दिवस" मात्र नहीं
वह तो हर पल महसूस करने वाली एक जज़्बात, एक एहसास है
अतुल्य भारत तो है ही - आओ मिलके इसे बनाएँ
एक प्रचंड भारत; एक अखंड भारत












-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

January 26, 2013

उम्मीद पे दुनिया क़ायम

निराशाजनक अखबारों कि सुर्ख़ियों से 
न अग्न्यनों के मुरकियों से 
अंधे कानून से 
न सड़कों पर घूमनेवाले दरिंदों से

आतंकवादियों से 
न पढ़े लिखे मति-बंद इंसानों से
मूर्ख नेताओं कि विशेष टिप्पणियों से
न नपुंसक गठ-बंदी सरकार से

ग़रीबी, भुकमरी या बेरोज़गारी से 
न घंटों बिजली की कटौती से 
हमें गिला है न शिकवा है 
इन् गैरों से जो लगते तो हैं अपने से 

नाराजगी तो है हमें खुद से
और हम जैसे भावुक और उत्तेजित बहनों और भाइयों से
अपने आप को असहाय या असमर्थ समझ
नाराजगी है इस नासूर व्यवस्था को केवल कोसने से

सीना ठोक औरों को बदलने चल पड़े 
खुद के गिरेबां में झाँकने से पहले
इस महान देश कि व्यवस्था बदलने चल पड़े
रोजमर्रे की ज़िन्दगी में या अपनी सोच में लाने से पहले

चलो, पहले छुपाये जाने वाली हर बात को उछालने से
जनता में जागरूकता की एक लहर तो चल पड़ी 
गहरी नींद से जागने के संकेत पे और सुबह कि धुंद से
उम्मीद कि एक किरण तो निकल पड़ी 

इसी उम्मीद पे और अपने देश के असली संस्कारों के भरोसे
आप सभी को इस चौसंठ्वा गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!!!

-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

July 13, 2012

खुली फिज़ा से रूबरू की उम्मीद!

इल्म नहीं क्या बेरुखी है सूरज को
उसे उगते, दहकते और सांझ में डूबता देखता हूँ
पर कांच के परे

वर्षा खिडकियों पे और दरवाज़ों पे दस्तक देते दम तोड़ देती
जो आंसू बहाती, वह पैरों तले सिसकती

मशीनों के बीच कुछ इस तरह मसरूफ थे हम
के सांस लेने वाली हवा तक मशीनों की ही देन थी

खुली फिज़ा से रूबरू के उम्मीद में
इस कशमकश से एक सदी और गुज़रेंगे हम!
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
July 25, 2011

A humble attempt at a Hindi / Urdu poem

A tribute to all my FRIENDS...

अक्षरों को जोड़ के शब्द बनते हैं
उनमे रूमानी मिला दो, अलफ़ाज़ बन जाते हैं

अल्फाज़ों को जोड़ के पंक्तियाँ बनती हैं
उनमे सुर मिला दो, तो गीत बन जाते हैं

क्षणों को जोड़ के दिन बनते हैं; दिन महिने, और महिने साल बनते हैं
उनमे अपने आप को घोल दो, तो यादें बन जाती हैं

यादों को समेटते चलो, सदियाँ बन जाती हैं
सदियों में अपना वजूद मिला दो तो ज़िन्दगी बन जाती हैं

ज़िन्दगी में दो को शामिल कर लो; तो मिसाल बन जाती है
दोस्ती को शिद्दत से निभा दो, तो बेमिसाल बन जाती हैं 

No comments:

Post a Comment